शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

सच तो यह है कि कोलकाता यानी बंगाल की दुर्गा पूजा विश्वविख्यात है। यहां के समाज के लोग—धर्म, जाति या वर्ग कोई भी क्यों न हों—इस उत्सव में पूरे उत्साह के साथ शामिल होते हैं।हर साल लगभग 500 से अधिक स्थानों पर दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन होता है।समाज के सामान्य लोग और सम्पन्न वर्ग दोनों ही मिलकर उदारतापूर्वक आर्थिक सहयोग देते हैं।कई नामी कलाकार अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा दुर्गा पूजा में समर्पित करते हैं।फिल्म और रंगमंच से जुड़े कलाकार भी पूरे विधि-विधान से मां दुर्गा का पूजन करते हैं।पूरे कोलकाता में इस दौरान उल्लास का वातावरण रहता है। लाखों लोग पंडालों में पहुंचकर एक-दूसरे से मिलते हैं और सामाजिक एकता का परिचय देते हैं।---प्रयागराज (इलाहाबाद) में दुर्गा पूजा की परंपरा प्रयागराज में भी बंगाली समुदाय के सहयोग से दुर्गा पूजा भव्य रूप में मनाई जाती है।यहां लगभग 100 स्थानों पर पंडाल सजाए जाते हैं।मां दुर्गा की प्रतिमाएं प्रायः कोलकाता से मंगाई जाती हैं और प्राण-प्रतिष्ठा के बाद सात दिन तक पूजन-अर्चन होता है।सुबह-शाम आरती, भोग और मंत्रोच्चार के बीच भक्तजन मां दुर्गा से अपने परिवार के लिए आशीष मांगते हैं।अधिकांश पूजा बांग्ला भाषा में होती है, जिससे सांस्कृतिक जुड़ाव गहरा हो जाता है।---सांस्कृतिक परंपराएं: अतीत और वर्तमान पहले समय में दुर्गा पूजा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक उत्सव भी हुआ करती थी।पंडालों में मंच बनाए जाते थे और वहां प्रतिदिन नाटक होते थे।कलाकार वही होते थे जो आयोजन समिति से जुड़े रहते थे।बच्चों और नए कलाकारों को भी इसमें अवसर दिया जाता था।रात 12–1 बजे तक लोग नाटक देखने उमड़ते और पूजा-पंडालों में रौनक बनी रहती थी।लेकिन अब यह परंपरा बदल चुकी है। नाटकों की जगह आर्केस्ट्रा और मनोरंजन के अन्य साधन आ गए हैं।---नए बदलाव और चुनौतियां समय के साथ दुर्गा पूजा में कई नए स्वरूप भी सामने आए हैं:पूजा-पंडालों के आसपास अस्थायी दुकानों की भरमार हो गई है।रात देर तक खाने-पीने का बाज़ार चलता रहता है।कई जगहों पर सुरक्षा और व्यवस्था को लेकर भी चिंता उठने लगी है।ऐसे में आवश्यकता है कि इतने बड़े उत्सव को सुव्यवस्थित ढंग से डिजाइन किया जाए, ताकि कोई अनहोनी या अवांछित घटना इस पवित्र पर्व पर दाग न लगे।---प्रयागराज की ऐतिहासिक पहचान कर्नलगंज बारवारी दुर्गा पूजा सोसाइटी यहां की सबसे पुरानी है, जो 173 वर्षों से लगातार दुर्गा पूजा का आयोजन कर रही है।इस बार यहां शिवलिंग आकार का भव्य पंडाल बनाया गया है, जिसकी ऊंचाई लगभग 40 फीट है।पंडालों की सजावट और मूर्तियों की कला अब भी प्रायः कोलकाता के कलाकारों द्वारा की जाती है।---कोलकाता और प्रयागराज दोनों ही स्थानों की दुर्गा पूजा नवरात्रि के दौरान आस्था, भव्यता और सामाजिक एकता का अद्भुत संगम प्रस्तुत करती है।कोलकाता की पूजा विश्वविख्यात है और उसकी छाया प्रयागराज में भी दिखाई देती है।समय के साथ स्वरूप बदले हैं—सांस्कृतिक नाटक गायब हो गए, व्यापारिक गतिविधियां बढ़ गईं—लेकिन इसके बावजूद मां दुर्गा की आराधना और लोगों का उत्साह आज भी उतना ही गहरा है।दुर्गा पूजा केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक ऐसा सांस्कृतिक पर्व है जो सामाजिक एकता, कलात्मकता और परंपरा को जीवित रखता है।

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

रामकथा पर आधारित रामलीला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि लौकिक-अलौकिक संस्कारों को सुरक्षित रखने का प्रयास है। कहा जाता है कि सनातन धर्म के शेष अवशेषों को बचाए रखने में रामलीला ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका मूल उद्देश्य मनुष्य को संस्कारित कर समाजोपयोगी बनाना और भक्ति के माध्यम से शांति व मर्यादा का संदेश देना रहा है।रामलीला केवल अध्यात्म ही नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का भी आधार बनी। भक्त कवियों ने इसे लोकजीवन और मानव आचरण से जोड़ा। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना के बाद स्वयं अनुभव किया कि यदि रामकथा को जनता के बीच न ले जाया जाए तो उसका कोई महत्व नहीं। इसलिए उन्होंने लीलाओं के माध्यम से आदर्श व्यक्ति, समाज और राज्य की मर्यादाओं को सामने रखकर बिखरते समाज को संभाला।आज जब नैतिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, तब रामलीला की प्रासंगिकता पहले से अधिक महसूस होती है।प्रयाग की परंपराप्रयाग धार्मिक आयोजनों के लिए प्रसिद्ध है, पर यहाँ की रामलीला विशेष पहचान रखती है। इसका उद्देश्य केवल भगवान श्रीराम के जीवन का प्रसार ही नहीं, बल्कि इसे सांस्कृतिक धरोहर के रूप में बचाए रखना भी है।प्रयाग में रामलीला कब शुरू हुई, इसका प्रामाणिक दस्तावेज नहीं मिलता, पर 19वीं शताब्दी से यहाँ विभिन्न स्थानों पर रामलीलाओं के उल्लेख मिलते हैं। अंग्रेज अधिकारी भी कभी इन आयोजनों का आनंद उठाते और सहयोग करते थे। बाबा हाथीराम और बेनीराम की रामलीलाएँ दक्षिणी क्षेत्र में सैकड़ों सालों से चल रही हैं। 1879 से दारागंज की रामलीला प्रसिद्ध है, जबकि कटरा और अन्य क्षेत्रों में भी समय-समय पर नई रामलीलाओं का सूत्रपात हुआ।1909 के गजेटियर के अनुसार, उस समय प्रयाग में 20 स्थानों पर रामलीलाएँ होती थीं। आज यह संख्या बढ़कर लगभग 100 हो गई है।हाईटेक रामलीलाटीवी धारावाहिक रामायण के बाद रामलीलाओं में तकनीकी प्रयोग बढ़ा। पथरचट्टी और पजावा जैसी मंडलियों ने करोड़ों रुपये खर्च कर हाईटेक मंचन शुरू किया, जहाँ क्रेन से उड़नखटोला, लिफ्ट से उड़ते हनुमान और रोशनी-साउंड इफेक्ट दर्शकों को आकर्षित करते हैं। लेकिन इस चकाचौंध में भाव और संदेश गौण हो जाते हैं। कई मंडलियाँ धारावाहिक के साउंडट्रैक तक का सीधा प्रयोग करती हैं, पर मौलिकता का अभाव है।इसके विपरीत, रेलवे कर्मचारियों और कुछ स्थानीय मंडलियों की रामलीलाएँ अब भी परंपरा से जुड़ी हैं—जहाँ रंगे पर्दों, चौपाइयों और संवादों से मंच सजता है।निष्कर्षकुल मिलाकर प्रयाग की रामलीला दो धाराओं में बँटी दिखाई देती है—एक ओर पारंपरिक रूप, दूसरी ओर हाईटेक प्रयोग। दोनों ही प्रयास महत्वपूर्ण हैं; पर यह सोचना ज़रूरी है कि करोड़ों खर्च कर यदि रामकथा का मूल संदेश न पहुँचे, तो क्या यह सही दिशा है?रामलीला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज में मूल्य, मर्यादा और आस्था को जगाना है। यदि यह ध्यान में रखा जाए तो परंपरा और आधुनिकता का संगम ही प्रयाग की रामलीला को सही मायने में विश्वप्रसिद्ध बनाएगा।

गुरुवार, 18 सितंबर 2025

हमारी जमीन खाली करो /अजामिल पंजाब की बाढ़: प्रकृति का संदेश और हमारी जिम्मेदारी नदिया चाहती है कि हम उनकी जमीन उन्हें वापस कर दें नदियों के गुस्से का बुलडोजर हमारा अस्तित्व ही मिटा देगा ।यह सच है कि देश के वे सभी छोटे-बड़े शहर, जो नदियों के किनारे बसे हुए हैं, इस समय भयंकर बाढ़ की चपेट में हैं। जान-माल का भारी नुकसान हो चुका है। इस आपदा से निपटने की लगातार कोशिशें हो रही हैं, लेकिन ज़रूरतों को देखते हुए ये प्रयास बहुत कम प्रतीत हो रहे हैं। लोगों के मन में यह एहसास और गहरा होता जा रहा है कि दुनिया भर में मनुष्य प्रकृति के साथ सही व्यवहार नहीं कर रहा है। यही कारण है कि एक के बाद एक आपदाएं हमारे सामने खड़ी हो रही हैं।हम यह भूल चुके हैं कि प्रकृति का साम्राज्य इस पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों के हित में काम करता है। यदि हम पृथ्वी के चक्र और उसके संतुलन को नुकसान पहुँचाएंगे, तो प्रकृति भी हमें क्षमा नहीं करेगी।पंजाब में बाढ़ की स्थितिपंजाब में बाढ़ की स्थिति काफी गंभीर है। राज्य के कई जिले प्रभावित हुए हैं। अब तक 52 लोगों की मौत हो चुकी है और 22 जिलों के 2,097 गांव बाढ़ की चपेट में हैं। लगभग 1.91 लाख हेक्टेयर फसल नष्ट हो चुकी है, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है।प्रमुख प्रभावित क्षेत्रप्रभावित जिले: 22 जिले बाढ़ से प्रभावित हुए हैं, जिनमें अमृतसर, गुरदासपुर, फिरोजपुर, जालंधर और लुधियाना प्रमुख हैं।नदियाँ: सतलुज, ब्यास और रावी नदियाँ उफान पर हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति और भी भयावह हो गई है।गांव: 2,097 गांव बाढ़ की मार झेल रहे हैं, जहाँ से लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया जा रहा है।राहत और बचाव कार्यसरकारी प्रयास: पंजाब सरकार राहत और बचाव कार्यों में सक्रिय है। सेना, एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की टीमें लगातार काम कर रही हैं।स्वास्थ्य शिविर: सरकार ने स्वास्थ्य शिविर लगाए हैं, जिनसे अब तक 1.5 लाख लोग लाभान्वित हो चुके हैं।केंद्रीय सहायता: केंद्र सरकार ने भी राहत कार्यों में सहयोग हेतु केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को पंजाब भेजा है।चुनौतियाँमौसम: मौसम विभाग ने कई जिलों में भारी बारिश का अलर्ट जारी किया है, जिससे स्थिति और भी बिगड़ सकती है।बुनियादी ढांचा: बाढ़ ने सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी ढांचे को बुरी तरह नुकसान पहुँचाया है।समाजसेवी संस्थाओं की भूमिकापंजाब में आई इस आपदा के दौरान समाजसेवी संस्थाएं सक्रिय रूप से राहत और बचाव कार्यों में जुटी हुई हैं।राहत सामग्री वितरण: राशन किट, पानी की बोतलें, दवाइयाँ, दलिया और अन्य आवश्यक सामग्री वितरित की जा रही है। हरिद्वार से भूपेंद्र कुमार की टीम ने 200 राशन किट और सामग्री पंजाब भेजी है।चिकित्सा सहायता: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और स्वदेशी जागरण मंच ने AIIMS बठिंडा और सीमा सुरक्षा बल के साथ मिलकर बड़े मेडिकल कैंप आयोजित किए हैं। यहाँ नेत्र, त्वचा, अस्थि रोग और स्त्री रोग विशेषज्ञों ने एक हजार से अधिक ग्रामीणों को स्वास्थ्य सेवाएँ दीं।स्वच्छता और स्वास्थ्य: बाढ़ के बाद बीमारियों से बचाव के लिए स्वदेशी जागरण मंच ने ब्लिचिंग पाउडर, फिनायल और स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराया है।राहत शिविर: पंजाब सरकार और समाजसेवी संस्थाएं मिलकर 122 राहत शिविर चला रही हैं, जिनमें अब तक 14,936 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया है।स्थानीय सहयोग: गुरुग्राम से 3,200 राहत किट अमृतसर जिले के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भेजी गईं, जिनमें आटा, चावल, दाल, तेल, नमक और अन्य आवश्यक वस्तुएँ शामिल थीं।संयुक्त प्रयास: एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, सेना, पंजाब पुलिस और समाजसेवी संस्थाएं मिलकर राहत कार्य कर रही हैं।प्रकृति से सबकहमें यह सोचना होगा कि अपने आर्थिक लाभ के लिए हमने अंधाधुंध पेड़ों की कटाई की और उन ज़मीनों पर कब्ज़ा किया, जिन पर नदियों का अधिकार था। हमने नदियों के घरों में प्रवेश कर वहाँ अपना साम्राज्य बनाने का दुस्साहस किया। अब जब नदियाँ उफान पर हैं, तो वे अपनी ज़मीन वापस चाहती हैं। नतीजा यह है कि नदियाँ अपने मार्ग से मनुष्य का अतिक्रमण बिना किसी बुलडोज़र के हटा रही हैं।हमें इस संवेदनशीलता को समझना होगा। यदि हमने समय रहते प्रकृति के संदेश को नहीं सुना, तो आने वाली पीढ़ियों के सामने ऐसी आपदाएं और भी विकराल रूप लेकर खड़ी होंगी।— अजामिल

मन की शांति और हमारा स्वास्थ मन की शांति की तलाश और मानसिक स्वास्थ्य का संकटआज का समय सामाजिक, आर्थिक और कार्य-क्षेत्र की समस्याओं से इतना घिरा हुआ है कि इंसान के लिए चैन से जीना कठिन हो गया है। आधुनिकता ने हमारी जिंदगी को आसान बनाने के बजाय उसमें ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी हैं, जिनके कारण हम एक अनचाही प्रतियोगिता में भागते जा रहे हैं। दुख की बात यह है कि हमें यह भी नहीं पता कि हम आखिर चाहते क्या हैं।एक समय था जब मनुष्य का सबसे बड़ा लक्ष्य मन की शांति हुआ करता था। लोग शांति की तलाश में जंगलों और पहाड़ों का रुख करते, एकांतवास अपनाते और जीवन से ऐसे साधनों को हटा देते जो तनाव और अशांति पैदा करते थे। 60 वर्ष की आयु पार करने के बाद लोग वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे, जहां उनकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती थी। परिवार भी अपने बड़े-बुजुर्गों को इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता था। यह अपमानजनक नहीं बल्कि सम्मानजनक माना जाता था।उन दिनों जीवन सरल था। इच्छाएं सीमित थीं, मन शांत रहता था और साधु-संन्यासियों की शरण में लोग ईश्वर को समझने की कोशिश करते थे। उनका जीवन गरिमामय और संतोष से भरा होता था।लेकिन आज परिस्थितियां बिल्कुल उलट हैं। आधुनिक मनुष्य जान-बूझकर या अनजाने में भौतिकता की दौड़ में फंस चुका है। यह जानते हुए भी कि इस संसार से कुछ भी साथ नहीं ले जाया जा सकता, व्यक्ति धन और साधन इकट्ठा करने में लगा है। इसका दुष्परिणाम यह है कि पूरी दुनिया अशांत मन से जीने वाले लोगों से भर गई है।एक सर्वेक्षण के अनुसार 100 में से 80 लोगों को रात को नींद ठीक से नहीं आती। उनकी जिंदगी निरंतर चिंताओं और तनाव से घिरी रहती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट बताती है कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं न केवल व्यक्ति की सेहत बल्कि पूरी मानवता और विश्व की अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरा बन चुकी हैं।आज दुनिया में लगभग 1 अरब लोग मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं।वर्ष 2021 में करीब 7 लाख लोगों ने अवसाद और चिंता के कारण आत्महत्या कर ली।हर दिन नई-नई बीमारियां मानसिक तनाव और अवसाद की वजह से जन्म ले रही हैं।भारत की स्थिति और भी चिंताजनक है।मानसिक बीमारियों से सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित हैं। लगभग 58 करोड़ महिलाएं यह भी नहीं जानतीं कि वे क्यों जी रही हैं।भारत सरकार मानसिक स्वास्थ्य पर कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 2% खर्च करती है।लगभग 92% लोगों को मानसिक रोगों के इलाज की कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है।10.6% महिलाएं गंभीर मानसिक स्वास्थ्य विकारों से जूझ रही हैं, लेकिन उन्हें इलाज और सहारा नहीं मिलता।दुख की बात यह है कि भारत में अवसाद से ग्रसित व्यक्ति को अक्सर ‘पागल’ करार देकर समाज से दूर कर दिया जाता है। लोग उनकी कमजोरी पर हंसते हैं, जबकि अन्य देशों में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीर प्रयास हो रहे हैं।71% देशों ने मानसिक बीमारियों के लिए अलग अस्पताल और आपातकालीन सेवाएं विकसित की हैं।39 देशों ने मानसिक स्वास्थ्य को राष्ट्रीय प्राथमिकता घोषित किया है।लगभग 80% देशों में मानसिक स्वास्थ्य के उपचार में सफलता मिल रही है।इसके विपरीत भारत में अब भी मानसिक बीमारियों को सामाजिक कलंक मान लिया जाता है। इलाज और पुनर्वास की कोशिशें बहुत कम हैं।आज सबसे बड़ी चुनौती है—मनुष्य को फिर से मन की शांति लौटाना। यह तभी संभव है जब समाज मानसिक स्वास्थ्य को उतनी ही गंभीरता से ले, जितनी शारीरिक स्वास्थ्य को दी जाती है। सरकार को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।क्योंकि जिस दिन हम समझ लेंगे कि मन की शांति ही सबसे बड़ा धन है, उसी दिन से हम एक स्वस्थ, संतुलित और शांत समाज बना सकेंगे/ अजामिल

बुधवार, 17 सितंबर 2025

मोबाइल फोन पर रील का चक्कर/अजामिल मोबाइल फोन: संवाद का साधन या मनोरंजन का उपकरण?भारत में मोबाइल फोन संवाद से अधिक मनोरंजन का साधन बन चुका है। औसतन हर उपयोगकर्ता दिन के दो-तीन घंटे मोबाइल पर व्यतीत करता है। बातचीत की तुलना में लोग मनोरंजन को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं। इसीलिए थोड़ी देर नेटवर्क बंद होते ही बेचैनी महसूस होने लगती है।पहले यात्रा के दौरान सहयात्रियों से बातचीत और मेलजोल होता था, अब अधिकांश लोग मोबाइल में डूबे रहते हैं। विदेशों में मोबाइल फोन केवल आवश्यक संवाद का माध्यम है, जबकि भारत में यह अंतहीन स्क्रोलिंग और त्वरित मनोरंजन का साधन बन गया है।सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने लंबे कार्यक्रमों की जगह छोटे-छोटे वीडियो यानी रिल्स लोकप्रिय कर दिए हैं। ये 1–3 मिनट की क्लिप मनोरंजन तो देती हैं, लेकिन कई बार भ्रामक, अश्लील या सतही सामग्री भी परोसती हैं। इनके लगातार देखने से यह आदत नशे जैसी बन जाती है। विशेषकर बच्चे और किशोर घर से बाहर निकलने और खेलों से दूर हो रहे हैं, जबकि इन छोटे वीडियो से उन्हें न तो सीख मिलती है और न ही चरित्र निर्माण होता है।मोबाइल फोन पर 60% से अधिक सामग्री उपयोगी और ज्ञानवर्धक भी है, बशर्ते उसे खोजा जाए। लेकिन आम तौर पर लोग जो सामने आता है, उसी तक सीमित रहते हैं।निष्कर्ष: मोबाइल फोन स्वयं में बुरा नहीं, बल्कि अत्यंत उपयोगी साधन है। समस्या उसका असंतुलित प्रयोग है। व्यक्तिगत, पारिवारिक और सरकारी स्तर पर संतुलन बनाना ज़रूरी है ताकि मोबाइल हमारे जीवन को सहयोग दे, पर नियंत्रण न करे।

सोमवार, 15 सितंबर 2025

अभिनय: जीवन की अनिवार्य कलारँगमंचजहाँ अभिनय ज़िंदगी है...अभिनय: जीवन की अनिवार्य कलाजीवन ही अभिनय है: अभिव्यक्ति और आत्मविश्वास की कला”“अभिनय: बचपन से बुढ़ापे तक हमारा अनजाना साथी”“नकल से नैचुरल तक: अभिनय ही जीवन की भाषा है”मंच से आगे: अभिनय जो हमें खुद से मिलाता है”अभिनय—मनुष्य की सबसे स्वाभाविक अभिव्यक्“जीना ही अभिनय करना है: संवेदनाओं का संवाद” हमारे जीवन की हर क्रिया और प्रतिक्रिया दूसरों को प्रभावित करने वाली अभिनय की ही एक कड़ी है। दिन के चौबीसों घंटे में ऐसा एक भी पल नहीं होता जब हम अपनी बात को व्यक्त करने के लिए अभिनय का सहारा न ले रहे हों। हमारा मस्तिष्क किसी भी कार्य को संपादित करते हुए लगातार अच्छा या बुरा अभिनय करता रहता है।असल में, हमें जीवन में जो बातें प्रभावित करती हैं, या जिन लोगों का कोई अंदाज़ हमें अच्छा लगता है, उनकी नकल करना हम सहज रूप से चाहते हैं। यही नकल और अभिनय हमें सफलता तक पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। जब कभी कोई कहता है – “ज्यादा एक्टिंग मत करो” – तो इसका सीधा अर्थ यह होता है कि हम सामने वाले के आचरण से प्रभावित हो चुके हैं।अभिनय हमारी बातचीत को रोचक और प्रभावी बना देता है। बिना शरीर की हलचल के, बिना चेहरे की मुद्राओं और आंगिक चेष्टाओं के, हम अपनी बात किसी तक पहुँचा ही नहीं सकते। जैसे ही हम बोलना शुरू करते हैं, हमारी आँखें, हाथ और पूरा शरीर हमारी बात के अनुरूप संदेश देने लगते हैं। चेहरे की मुद्राएँ बदलने लगती हैं – कभी खुशी, कभी नाराज़गी, कभी हँसी तो कभी आँसू। यह सब कुछ अत्यंत स्वाभाविक है और इसके पीछे हमारा मस्तिष्क और हमारी संवेदनाएँ सक्रिय रहती हैं। वास्तव में, अभिनय की असली जान हमारी संवेदनाएँ ही होती हैं।बचपन से ही हम अभिनय करते चले आते हैं। छोटे-छोटे बच्चे अपने बड़ों की उठने-बैठने, चलने-फिरने और बोलने की नकल करते हैं। यही नकल उनके व्यक्तित्व को आकार देती है। जैसे-जैसे हम परिपक्व होते जाते हैं, हमारा विवेक और अवलोकन शक्ति हमारे अभिनय को और गहरा तथा प्रभावी बना देती है।यह भी सच है कि ज़बरदस्ती किया गया अभिनय अक्सर नकली प्रतीत होता है। रंगमंच और सिनेमा में किसी विशेष पात्र का अभिनय इसलिए प्रभावशाली लगता है क्योंकि वह कलाकार अपनी संवेदनाओं को उस पात्र की सामाजिकता और जीवन से जोड़ देता है। तभी हम कहते हैं – “उसका अभिनय बहुत नैचुरल था।”अभिनय सिर्फ बोलने या मुद्राओं तक सीमित नहीं है, यह हमारी जीवन दृष्टि का विस्तार है। एक अच्छा अभिनेता वह है जो जीवन का बारीक़ी से अवलोकन करता है और उसे सहजता से व्यक्त करता है। हर कोई नकल करता है, लेकिन कलाकार वही बन पाता है जिसका अवलोकन गहरा और अभिव्यक्ति स्वाभाविक हो।फिल्मों और रंगमंच के अभिनेता हमें इसलिए आकर्षित करते हैं क्योंकि उनका आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति की क्षमता सामान्य से अलग होती है। अभिनय हमारी व्यक्तित्व विकास की भी सबसे बड़ी कला है। यह हमें आत्मविश्वासी, संवेदनशील और भावनात्मक रूप से परिपक्व बनाता है।अभिनय केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज पर असर डालने वाली एक सशक्त कला है। बड़े अभिनेता सिर्फ पर्दे पर नहीं, बल्कि अपनी निजी जिंदगी में भी समाज के लिए आदर्श बन जाते हैं। उनके आचरण की नकल लोग सहज रूप से करने लगते हैं।आज की दुनिया में जब लोग अवसाद और अकेलेपन से जूझ रहे हैं, अभिनय मानसिक संतुलन और आंतरिक शांति का एक कारगर साधन बन सकता है। यह हमें चिंता से मुक्त करता है और सोच को व्यापक और तर्कसंगत बनाता है। इसीलिए ज़रूरी है कि स्कूलों में अभिनय कार्यशालाएँ आयोजित की जाएँ, ताकि बच्चे न केवल आनंद लें बल्कि जीवन दृष्टि का विस्तार भी पाएँ।अभिनय हमें यह समझने का अवसर देता है कि हम वास्तव में कौन हैं और हमें क्या होना चाहिए। यह सामाजिक संतुलन की दिशा में विनम्र प्रयास भी है और आत्म-खोज का सुंदर साधन भी।– अजामिल

शनिवार, 13 सितंबर 2025

-हबीब तनवीर: लोक और आधुनिक रंगमंच का संगमभारतीय हिंदी रंगमंच की चर्चा हबीब तनवीर के बिना अधूरी है। उन्होंने लोक परंपरा और आधुनिक रंगमंच को जोड़कर हिंदी रंगमंच को नई दिशा दी।1 सितंबर 1923 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में जन्मे तनवीर ने नागपुर और अलीगढ़ में पढ़ाई करने के बाद लंदन की रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स से नाट्यकला का प्रशिक्षण लिया। अंतरराष्ट्रीय अनुभव लेकर वे भारत लौटे, जहाँ रंगकर्म से आजीविका पाना कठिन था। उन्होंने फिल्मों और आकाशवाणी से जुड़कर रोज़गार साधा, किंतु उनकी असली रुचि रंगमंच ही रही।1954 में उनका ऐतिहासिक नाटक आगरा बाज़ार मंचित हुआ। इसकी प्रस्तुति खुले बाजार में लोक कलाकारों और युवाओं के साथ की गई। दर्शक भी इसमें सहभागी बन गए। यह प्रयोग हिंदी रंगमंच में मील का पत्थर साबित हुआ।1959 में उन्होंने पत्नी के सहयोग से नया थिएटर की स्थापना की और छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों को मंच पर उतारा। उनकी शैली में छत्तीसगढ़ की नाचा परंपरा का गहरा प्रभाव रहा। लोक जीवन, गीत-संगीत और परंपराओं को उन्होंने आधुनिक मंचीय तकनीक के साथ जोड़ा और एक नई नाट्यधारा गढ़ी।उनके चर्चित नाटकों में आगरा बाज़ार, चरणदास चोर, मिट्टी की गाड़ी, शतरंज के मोहरे, पोंगा पंडित, गाँव के नाम ससुराल, मोर नाम दामाद और बहादुर कलारिन प्रमुख हैं। इनकी विषयवस्तु सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर आधारित रही, जिनमें आम आदमी की पीड़ा और संघर्ष झलकता था।उनके योगदान को देखते हुए उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मान मिले।हबीब तनवीर ने सिद्ध किया कि रंगमंच केवल मंच तक सीमित नहीं, बल्कि जनता से सीधा संवाद है। लोक और आधुनिकता का यह संगम उन्हें हमेशा भारतीय रंगमंच के इतिहास में अमर बनाए रखेगा।**अजामिल