शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

इलाहाबाद का समकालीन रंगमंच आलेख अजामिल

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आलेख / अजामिल

**समकालीन रंगमच

  की चुनौतियां
मौजूदा हिंदी रंगमंच एक लंबी अनुभव यात्रा से गुजरने के बावजूद आज भी तमाम मुश्किलों का सामना कर रहा है। लगातार रंगकर्मियों के संघर्ष के बाद भी अनेक  चुनौतियां रंगकर्मियों के सामने बनी हुई है  । रंगकर्मी कहीं धन के अभाव में हताश निराश हो रहे हैं तो कहीं सर्व सुविधाजनक प्रेक्षागृह के न होने से रंगकर्म की निरंतरता में बाधा आ रही है । छोटे बड़े शहरों में रंगकर्मियों के पास पूर्वाभ्यास के लिए जगह तक नहीं है । रंगकर्मियों के प्रशिक्षण के लिए भी कोई समुचित व्यवस्था नहीं है । ये कुछ मूलभूत चुनौतियां है जिनका सामना करने और इनके निदान खोजने में ही रंगकर्मियों की सारी ऊर्जा नष्ट हो रही है । 80 के दशक तक हिंदी रंगमंच का स्वरूप पूरी तरह बना नहीं था । हिंदी रंगकर्म का सारा कार्य शौकिया रंगकर्मी किया करते थे । ये वे रंगकर्मी थे जो रंगकर्म के अलावा जीविका के लिए नौकरी करते थे या किन्ही दूसरे पेशे से जुड़े हुए थ । आज हालात बदल गए हैं । आज के रंगकर्मी रंगकर्म को रोटी रोटी से भी  जोड़ कर देख रहे हैं

। इसे ये एक व्यवसाय के रूप में विकसित करना चाहते हैं और रंगकर्मियों को इसमें फिलहाल सफलता मिलती नहीं दिखाई दे रही है । इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि आज मनोरंजन के तमाम साधन मौजूद हैं । रंगमंच दर्शकों की  जरूरत में  अभी तक शामिल नहीं हो पाया है । सिनेमा टेलीविजन और मोबाइल फोन पर मनोरंजन के बहुत से आयाम मौजूद होने के कारण दर्शकों की रुचि नाटक देखने पर बहुत ज्यादा नहीं दिखाई दे रही है । कुछ महानगरों को छोड़ दें तो बहुत से शहरों और कस्बों में होने वाली नाट्य प्रस्तुतियों में दर्शकों की कमी रंगकर्मियों का मनोबल तोड़ रही है ।

एक और बड़ी मुश्किल है  क़ि रंगकर्मियों की ओर से भी दर्शकों को जुटाने के प्रयास भी नहीं हो रहे हैं । हिंदी रंगकर्म का आधार दर्शकों का अनुराग नहीं रहा बल्कि यह सरकार के अनुदान पर किसी तरह चल रहा है । दुखद है कि रंगकर्म आज अधिकतर उन रंगकर्मियों के हाथ में है जो सरकारी अनुदान लाने में सक्षम है । प्रतिभा और योग्यता का कोई मतलब नहीं रह गया है । हिंदी रंगमंच को सरकारी अनुदान ने जितना धक्का पहुंचाया है , उसकी भरपाई आगामी कई वर्षों तक नहीं हो पाएगी । रंगकर्मियों की सारी ऊर्जा अनुदान जुटाने में खर्च हो रही है । जैसे तैसे हिंदी के नाटक खेले जा रहे हैं और रंगकर्मियों को इस बात की चिंता भी नहीं है कि उन्हें कितने दर्शक देखते हैं । हिंदी रंगमंच में दर्शकों को अपने साथ जोड़ने की कोई कोशिश भी नहीं की , नतीजा यह हुआ क़ि मनोरंजन के दूसरे माध्यमों की तरह रंगमंच के गुण ग्राहक नहीं बने । नवजागरण काल की कुछ अपवाद प्रस्तुतियों को छोड़ दें तो रंगमंच ने दर्शकों के साथ उनकी समस्याओं को लेकर वैसी साझेदारी सुनिश्चित नहीं की जैसे कि इस माध्यम से उम्मीद की जाती है    . . । रंगकर्मियों की उदासीनता  ने भी रंगकर्म का बहुत नुकसान किया।  नतीजा यह हुआ क़ि ऐसा दर्शक वर्ग तैयार नहीं हो पाया जो आगे बढ़कर रंगमंच को अपने पैरों पर खड़े होने मैं मदद करता और उसकी जिम्मेदारी उठाता  । रंगकर्म का आधार जब तक दर्शक नहीं होंगे तब तक रंगकर्म अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाएगा और रंगकर्मियों की चुनौतियां बनी रहेगी  । रंगकर्मियों के जुनून और सरकारी अनुदान के भरोसे नाटक को बहुत दिनों तक नहीं खींचा जा सकता  । रंगकर्म उत्सव है और इसे उत्सव की शर्तों पर भी करना होगा।  रंगकर्मी  कभी खुद से यह सवाल नहीं पूछते  कि आखिर वह रंगकर्म क्यों कर रहे हैं  ।  रंगकर्म करने का  ठोस कारण होना चाहिए । इसमें कोई संदेह नहीं कि देश भर में हिंदी रंगमंच से जुड़े हजारों हजार रंगकर्मी अपने अपने स्तर पर सक्रिय भूमिका में है और रंगकर्म को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की कोशिश में लगे हुए हैं । जन आंदोलनों में भी इनकी भूमिका को देखा जा सकता है  । रंगकर्मी यह भी चाहते हैं कि रंगकर्म उनकी रोटी रोटी का भी आधार बन जाए । इसमें गलत कुछ भी नहीं है  । रंगकर्मियों को उनकी मेहनत का फल मिलना ही चाहिए लेकिन उसके लिए अलग तरह की कोशिशें करनी होंगी और दर्शकों का विश्वास जीतना होगा । यह बताना होगा कि दर्शक उनके नाटक देखने के लिए प्रेक्षागृह तक क्यों आए । रंगमंच जन चेतना का संवाहक है । समाज के बिना उसका होना ना होने के बराबर है । रंगमंच सिर्फ कला नहीं है । इसमें विचार भी महत्वपूर्ण है और समाज में हो रहे परिवर्तनों का अध्ययन भी । रंगमंच बहुत जिम्मेदारी का काम है और समाज से सीधे सीधे जुड़ता है इसलिए इसके सामने चुनौतियां भी कुछ अलग तरह की होती हैं   । आज समाज और कला को अलग अलग करके देखा जा रहा है जिसके कारण तरह तरह के संकट भी पैदा हो रहे है । वहीं यह भी बहुत जरूरी है कि जल्दी ही वे रास्ते निकाले जाएं जिससे हिंदी रंगमंच का स्वरूप पूरी तरह न सही तो इसमें व्यवसायिकता का समावेश इतना जरूर हो क़ि रंगकर्मी आत्मसम्मान से भरा जीवन जी सकें । कुछ रंगकर्मी मानते हैं कि ऐसा तभी होगा जब हिंदी रंगमंच मैं निपुणता दिखाई पड़ेगी  । प्रोफेशनलिज्म के बिना मनोरंजन के बाजार में जगह बनाना बहुत मुश्किल होगा।  रंगकर्मियों को पूरी पूरी कोशिश करना होगा क़ि वे तार्किक तरीके से बाजार का हिस्सा बने । इसमें कोई हर्ज नहीं है  । प्रस्तुतियां अगर बाजारु नहीं है तो बाजार  रंगमंच की ताकत ही बनेगा।  रंगकर्मी समाज का ही हिस्सा है अगर  रंगकर्मी के अस्तित्व पर ही संकट मंडराता रहेगा तो वह सामाजिक सरोकारों के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह कैसे करेगा । सरकारी अनुदान की राशि भले ही लाखों में हो लेकिन इस राशि के वितरण में रंगकर्मियों के बड़े प्रतिशत को इसका यथोचित  लाभ नहीं मिल रहा है । इसके बावजूद  हिंदी रंगमंच पर लगातार नए प्रयोग हो रहे हैं लेकिन नए प्रयोगों को रंगमंच की लोकप्रियता का आधार नहीं बनाया जा सकता । इधर कुछ वर्षों से रंगकर्मी पारंपरिक लोक नाट्य की भी सुंदर प्रस्तुतियां कर रहे हैं । सरकार इसके लिए अलग से अनुदान भी उपलब्ध करवा रही है लेकिन इसकी प्रासंगिकता का मूल्यांकन अभी नहीं हो रहा है । इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। इलाहाबाद का रंग जगत कमोबेश रंगकर्म के क्षेत्र में आज मुख्यधारा में बना हुआ है यहां के रंगकर्मी जब बाहर जाकर अपनी प्रस्तुतियां करते हैं तो उसकी धमक दूर दूर तक सुनाई देती है इलाहाबाद में वरिष्ठ रंगकर्मियों में प्रवीण शेखर अनिल रंजन भौमिक आलोक नायर जहां प्रयोगधर्मी रंगकर्मी के रूप में अपनी पहचान बना रहे हैं वही अतुल यदुवंशी का नाम लोकनाट्य की प्रस्तुतियों के लिए बड़े आदर से लिया जाता है महिलाओं में सुषमा शर्मा रितिका अवस्थी निर्देशन के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम कर रही है रेनू राज सिंह सफलता श्रीवास्तव प्रतिमा श्रीवास्तव प्रिया मिश्रा सोनम सेठ आदि अनेक अभिनेत्रियां इलाहाबाद के रंग जगत में आज चर्चा में हैं अभिनेताओं मैं राकेश यादव धीरज कुमार गुप्ता सन्नी गुप्ता आदि बहुत से कलाकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ी है इसे देखते हुए कहा जा सकता है की रंगकर्म के विकास की गति भले ही धीमी हो रंगकर्मियों द्वारा समस्याओं के निदान की जद्दोजहद पूरी आन-बान-शान के साथ चल रही है जो बेहद सुखद है।

** अजामिल


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