सोमवार, 15 सितंबर 2025

अभिनय: जीवन की अनिवार्य कलारँगमंचजहाँ अभिनय ज़िंदगी है...अभिनय: जीवन की अनिवार्य कलाजीवन ही अभिनय है: अभिव्यक्ति और आत्मविश्वास की कला”“अभिनय: बचपन से बुढ़ापे तक हमारा अनजाना साथी”“नकल से नैचुरल तक: अभिनय ही जीवन की भाषा है”मंच से आगे: अभिनय जो हमें खुद से मिलाता है”अभिनय—मनुष्य की सबसे स्वाभाविक अभिव्यक्“जीना ही अभिनय करना है: संवेदनाओं का संवाद” हमारे जीवन की हर क्रिया और प्रतिक्रिया दूसरों को प्रभावित करने वाली अभिनय की ही एक कड़ी है। दिन के चौबीसों घंटे में ऐसा एक भी पल नहीं होता जब हम अपनी बात को व्यक्त करने के लिए अभिनय का सहारा न ले रहे हों। हमारा मस्तिष्क किसी भी कार्य को संपादित करते हुए लगातार अच्छा या बुरा अभिनय करता रहता है।असल में, हमें जीवन में जो बातें प्रभावित करती हैं, या जिन लोगों का कोई अंदाज़ हमें अच्छा लगता है, उनकी नकल करना हम सहज रूप से चाहते हैं। यही नकल और अभिनय हमें सफलता तक पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। जब कभी कोई कहता है – “ज्यादा एक्टिंग मत करो” – तो इसका सीधा अर्थ यह होता है कि हम सामने वाले के आचरण से प्रभावित हो चुके हैं।अभिनय हमारी बातचीत को रोचक और प्रभावी बना देता है। बिना शरीर की हलचल के, बिना चेहरे की मुद्राओं और आंगिक चेष्टाओं के, हम अपनी बात किसी तक पहुँचा ही नहीं सकते। जैसे ही हम बोलना शुरू करते हैं, हमारी आँखें, हाथ और पूरा शरीर हमारी बात के अनुरूप संदेश देने लगते हैं। चेहरे की मुद्राएँ बदलने लगती हैं – कभी खुशी, कभी नाराज़गी, कभी हँसी तो कभी आँसू। यह सब कुछ अत्यंत स्वाभाविक है और इसके पीछे हमारा मस्तिष्क और हमारी संवेदनाएँ सक्रिय रहती हैं। वास्तव में, अभिनय की असली जान हमारी संवेदनाएँ ही होती हैं।बचपन से ही हम अभिनय करते चले आते हैं। छोटे-छोटे बच्चे अपने बड़ों की उठने-बैठने, चलने-फिरने और बोलने की नकल करते हैं। यही नकल उनके व्यक्तित्व को आकार देती है। जैसे-जैसे हम परिपक्व होते जाते हैं, हमारा विवेक और अवलोकन शक्ति हमारे अभिनय को और गहरा तथा प्रभावी बना देती है।यह भी सच है कि ज़बरदस्ती किया गया अभिनय अक्सर नकली प्रतीत होता है। रंगमंच और सिनेमा में किसी विशेष पात्र का अभिनय इसलिए प्रभावशाली लगता है क्योंकि वह कलाकार अपनी संवेदनाओं को उस पात्र की सामाजिकता और जीवन से जोड़ देता है। तभी हम कहते हैं – “उसका अभिनय बहुत नैचुरल था।”अभिनय सिर्फ बोलने या मुद्राओं तक सीमित नहीं है, यह हमारी जीवन दृष्टि का विस्तार है। एक अच्छा अभिनेता वह है जो जीवन का बारीक़ी से अवलोकन करता है और उसे सहजता से व्यक्त करता है। हर कोई नकल करता है, लेकिन कलाकार वही बन पाता है जिसका अवलोकन गहरा और अभिव्यक्ति स्वाभाविक हो।फिल्मों और रंगमंच के अभिनेता हमें इसलिए आकर्षित करते हैं क्योंकि उनका आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति की क्षमता सामान्य से अलग होती है। अभिनय हमारी व्यक्तित्व विकास की भी सबसे बड़ी कला है। यह हमें आत्मविश्वासी, संवेदनशील और भावनात्मक रूप से परिपक्व बनाता है।अभिनय केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज पर असर डालने वाली एक सशक्त कला है। बड़े अभिनेता सिर्फ पर्दे पर नहीं, बल्कि अपनी निजी जिंदगी में भी समाज के लिए आदर्श बन जाते हैं। उनके आचरण की नकल लोग सहज रूप से करने लगते हैं।आज की दुनिया में जब लोग अवसाद और अकेलेपन से जूझ रहे हैं, अभिनय मानसिक संतुलन और आंतरिक शांति का एक कारगर साधन बन सकता है। यह हमें चिंता से मुक्त करता है और सोच को व्यापक और तर्कसंगत बनाता है। इसीलिए ज़रूरी है कि स्कूलों में अभिनय कार्यशालाएँ आयोजित की जाएँ, ताकि बच्चे न केवल आनंद लें बल्कि जीवन दृष्टि का विस्तार भी पाएँ।अभिनय हमें यह समझने का अवसर देता है कि हम वास्तव में कौन हैं और हमें क्या होना चाहिए। यह सामाजिक संतुलन की दिशा में विनम्र प्रयास भी है और आत्म-खोज का सुंदर साधन भी।– अजामिल

शनिवार, 13 सितंबर 2025

-हबीब तनवीर: लोक और आधुनिक रंगमंच का संगमभारतीय हिंदी रंगमंच की चर्चा हबीब तनवीर के बिना अधूरी है। उन्होंने लोक परंपरा और आधुनिक रंगमंच को जोड़कर हिंदी रंगमंच को नई दिशा दी।1 सितंबर 1923 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में जन्मे तनवीर ने नागपुर और अलीगढ़ में पढ़ाई करने के बाद लंदन की रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स से नाट्यकला का प्रशिक्षण लिया। अंतरराष्ट्रीय अनुभव लेकर वे भारत लौटे, जहाँ रंगकर्म से आजीविका पाना कठिन था। उन्होंने फिल्मों और आकाशवाणी से जुड़कर रोज़गार साधा, किंतु उनकी असली रुचि रंगमंच ही रही।1954 में उनका ऐतिहासिक नाटक आगरा बाज़ार मंचित हुआ। इसकी प्रस्तुति खुले बाजार में लोक कलाकारों और युवाओं के साथ की गई। दर्शक भी इसमें सहभागी बन गए। यह प्रयोग हिंदी रंगमंच में मील का पत्थर साबित हुआ।1959 में उन्होंने पत्नी के सहयोग से नया थिएटर की स्थापना की और छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों को मंच पर उतारा। उनकी शैली में छत्तीसगढ़ की नाचा परंपरा का गहरा प्रभाव रहा। लोक जीवन, गीत-संगीत और परंपराओं को उन्होंने आधुनिक मंचीय तकनीक के साथ जोड़ा और एक नई नाट्यधारा गढ़ी।उनके चर्चित नाटकों में आगरा बाज़ार, चरणदास चोर, मिट्टी की गाड़ी, शतरंज के मोहरे, पोंगा पंडित, गाँव के नाम ससुराल, मोर नाम दामाद और बहादुर कलारिन प्रमुख हैं। इनकी विषयवस्तु सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर आधारित रही, जिनमें आम आदमी की पीड़ा और संघर्ष झलकता था।उनके योगदान को देखते हुए उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मान मिले।हबीब तनवीर ने सिद्ध किया कि रंगमंच केवल मंच तक सीमित नहीं, बल्कि जनता से सीधा संवाद है। लोक और आधुनिकता का यह संगम उन्हें हमेशा भारतीय रंगमंच के इतिहास में अमर बनाए रखेगा।**अजामिल

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

समानांतरनामा और अनिल रंजन भौमिक

** समानांतरनामा और वरिष्ठ रंगकर्मी
अनिल रंजन भौमिक
प्रकाशित हुआ एक और विशेषांक
आज से 48 वर्ष पहले सुपरिचित रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक रंगमंच के क्षेत्र में अनेक सपनों को लेकर इलाहाबाद आए थे। उन्होंने बड़ी विनम्रता के साथ अपने रंगकर्म की साधना आरंभ की। यह वह समय था जब इलाहाबाद का रंगमंच अपनी नाट्य प्रस्तुतियों के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध था। यह जानकर आश्चर्य होगा कि उस दौर में इलाहाबाद में सबसे अधिक नाट्य प्रस्तुतियां की जाती थीं।

उस समय समर्पित रंगकर्मियों द्वारा आयोजित लघु नाट्य प्रतियोगिताओं में ही लगभग 400 नाटक संगीत समिति के मंच पर देश की विभिन्न नाट्य संस्थाओं द्वारा प्रस्तुत किए जाते थे। इन आयोजनों में 600 से 800 तक रंगकर्मी शामिल होते थे। इसी कालखंड में वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक ने अपनी नाट्य प्रस्तुतियों का शुभारंभ इलाहाबाद से किया। उल्लेखनीय यह रहा कि मंच पर कुछ ही प्रस्तुतियों के बाद वे एक चर्चित नाम बन गए।

अनिल रंजन भौमिक रंगकर्म के अतिरिक्त अन्य अनेक कला-विधाओं में भी पूरे समर्पण के साथ कार्य करना चाहते थे। उनकी संस्था समानांतर ने कला की विभिन्न विधाओं को केंद्र में रखकर साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़े लोगों के बीच सराहनीय कार्य किए। उनकी बहुमुखी प्रतिभा को लोगों ने सराहा और स्वीकार किया।

अनिल रंजन भौमिक सदैव एक समर्पित रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी रहे। उनका सपना था कि रंगकर्मी एक परिवार की तरह हों, सब मिलकर श्रेष्ठ प्रस्तुतियों का मंचन करें और समाज के हित में सर्वश्रेष्ठ कार्य करें। उनके इस आग्रह से अनेक रंगकर्मी उनकी संस्था के साथ परिवार की भांति जुड़े। किंतु अन्य संस्थाएं एक मंच और एक छत के नीचे न आ सकीं। सभी अपने-अपने ढंग से काम करना चाहते थे। यह गलत नहीं था, लेकिन रंगकर्मियों का एक-दूसरे का सहयोग न करना दुखद अवश्य था। इस रवैये ने अनिल रंजन भौमिक को बहुत कष्ट दिया।

फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। वे अकेले चलने में भी विश्वास करते रहे। उनका यह एकाकी प्रयास आज, 48 वर्षों बाद, समानांतर के मंच पर अनेक विधाओं में अपने विशिष्ट स्वरूप के साथ फलित हो रहा है। आज पूरे देश के रंगकर्मी उनके साथ सहयोग कर रहे हैं। समानांतर संस्था की ऐसी छवि बनी है जिसका देशभर में आदर होता है और जिसके साथ जुड़कर कार्य करना लोग गर्व का अनुभव करते हैं।

हाल ही में समानांतर ने अपनी बहुचर्चित अनियतकालीन पत्रिका समानांतरनामा का चौथा अंक, देश-विदेश के बहुचर्चित नाटककार और निर्देशक बादल सरकार पर केंद्रित करते हुए प्रकाशित किया। इस विशेषांक को अनिल रंजन भौमिक ने नाम दिया — बादल सरकार शतक विशेषांक। यह पत्रिका अपनी गंभीरता और सुंदरता के कारण आज रंगकर्मियों के लिए आवश्यक पठन सामग्री बन चुकी है।

बादल सरकार शतक विशेषांक में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अत्यंत विचारणीय सामग्री दी गई है। इसमें नेमिचंद्र जैन और प्रतिभा अग्रवाल जैसे वरिष्ठ रंगकर्मियों ने ‘धरोहर’ स्तंभ के अंतर्गत बादल सरकार के सुप्रसिद्ध नाटक बाकी इतिहास और एवं इंद्रजीत पर उत्कृष्ट आलेख लिखे हैं। साथ ही, विश्व रंगमंच दिवस पर बादल सरकार द्वारा दिया गया उनका सार्थक संदेश भी सम्मिलित किया गया है।

इस विशेषांक में बादल सरकार के रंग-जीवन के विविध अनुभवों को पढ़ना भी एक अलग तरह का अनुभव है। इसमें पंडित सत्यदेव दुबे, सुलभा देशपांडे, महेश चंद्र चट्टोपाध्याय, अनामिका हक्सर और सुधीर मिश्रा के अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख और टिप्पणियों को भी स्थान मिला है। बादल सरकार के ‘तीसरे रंगमंच’ पर विशेष रूप से वैचारिक टिप्पणियां प्रकाशित की गई हैं।

‘रंग वैचारिकी’ खंड में विजय तेंदुलकर, श्याम बेनेगल, गिरीश कर्नाड, अमोल पालेकर, मोहन आगाशे, देवराज अंकुर, प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा, कीर्ति जैन, राकेश वेदा, प्रोफेसर मित्रसेन मजूमदार और राजेश कुमार के विचारों को रेखांकित करने वाले उपयोगी आलेख भी शामिल हैं। इसके अलावा भी अनेक पठनीय और सघन सामग्री इस अंक में प्रस्तुत की गई है।

जो लोग रंगमंच में रुचि रखते हैं और विशेष रूप से बादल सरकार को समझना और पढ़ना चाहते हैं, उनके लिए समानांतरनामा का यह अंक अत्यंत उपयोगी और आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि इस अंक में बादल सरकार के सुंदर चित्र भी प्रकाशित किए गए हैं। यह अंक हर दृष्टि से एक आवश्यक हस्तक्षेप कहा जा सकता है।

इस अंक के संपादक मंडल में राजेंद्र कुमार, देवराज अंकुर और अनीता गोपेश का सहयोग विशेष उल्लेखनीय है। इनके सहयोग के बिना यह अंक इस रूप में संभव नहीं था। इस विशेषांक में बादल सरकार के सुप्रसिद्ध नाटक सीढ़ी का अनुवाद (अनिल रंजन भौमिक द्वारा) और नाटक बीज का अनुवाद (यामाहा सराफ द्वारा) भी प्रकाशित किया गया है, जिससे यह अंक और विशेष बन जाता है।

समानांतरनामा का यह अंक हिंदी रंगमंच की पत्रिकाओं के बीच एक मील का पत्थर है, जिसे लंबे समय तक याद किया जाएगा। जो लोग बादल सरकार को उनके रंगकर्म के माध्यम से समझना चाहते हैं, उनके लिए यह अंक एक संदर्भ-पुस्तक की तरह है। अनिल रंजन भौमिक के इस प्रयास से हिंदी रंगमंच निस्संदेह समृद्ध हुआ है।

– अजामिल

भ्रष्टाचार में डूबे दो सरकारी विभाग



भ्रष्टाचार में डूबे विभाग : पुलिस और अस्पताल

भारत में भ्रष्टाचार से सबसे अधिक प्रभावित विभागों में पुलिस और अस्पताल प्रमुख हैं। आम आदमी ईश्वर से यही प्रार्थना करता है कि उसे कभी इन दोनों के चक्कर में न पड़ना पड़े। इनकी विशेषता यह है कि ये मददगार बनने के बजाय शोषण का जाल बिछाते हैं।

पुलिस विभाग पूरी तरह निरंकुश हो चुका है। उस पर किसी व्यवस्था का न दबाव है, न प्रभाव। बेलगाम नेताओं और सत्ता के इशारे पर यह विभाग गरीबों के खिलाफ ही अभियान चलाता है। कई पुलिसकर्मी मानते हैं कि यदि वे नियम-कानून के अनुसार काम करें तो उन पर दबाव बनाया जाता है। यही कारण है कि समाज का बड़ा हिस्सा पुलिस से विश्वास खो बैठा है। थाने में शिकायत दर्ज कराने जाने वाले व्यक्ति को सहयोग मिलना तो दूर, अक्सर अपमान झेलना पड़ता है। दुर्भाग्य है कि नागरिकों की रक्षा के लिए बने कानूनों को किनारे कर पुलिस अपने बनाए नियम थोप रही है। विदेशों में जहां पुलिस जनता की मददगार मानी जाती है, वहीं हमारे यहां वह भय का प्रतीक बन चुकी है।

अस्पतालों की स्थिति भी कम खराब नहीं। सरकारी अस्पतालों में बिना रिश्वत दिए किसी का इलाज संभव नहीं। बिस्तर की कमी के कारण मरीज प्रतीक्षालय में पड़े रहते हैं और डॉक्टर-स्टाफ सेवा भाव से अधिक पैसे वसूलने में रुचि रखते हैं। सरकार करोड़ों रुपये खर्च करती है, फिर भी सुविधाएं निजी बाजार के हवाले कर दी जाती हैं। निजी अस्पतालों में भी वही उपचार पाता है, जिसके पास पर्याप्त पैसा हो। गरीब मरीज लाचार होकर मौत के साये में जीते हैं।

सरकार को चाहिए कि इन दोनों विभागों पर कड़ा अंकुश लगाए। जब तक कठोर सुधार नहीं होंगे, तब तक आम आदमी शोषण और भय से मुक्त नहीं हो सकेगा।

**अजामिल

जंगल जानवर और हमारा अधिकार



जंगल, फल और हमारा दायित्व

बंदर और सूअर जैसे जंगली जानवर अक्सर फलों को नुकसान पहुँचाते हैं। निश्चित रूप से इससे मनुष्य को कठिनाई होती है, क्योंकि यह फल बड़ी मेहनत से पैदा किए जाते हैं। परंतु यह भी सच है कि जंगलों में फल केवल मनुष्य के लिए ही नहीं उगते, बल्कि प्रकृति ने उन्हें वहां रहने वाले तमाम जीवों के हिस्से के रूप में भी बनाया है। जब जंगलों में फलों की प्रचुरता होती है, तो स्वाभाविक है कि जंगली जीव भी अपनी भूख मिटाने के लिए इनका उपभोग करेंगे। हाँ, वे इन्हें बर्बाद भी करते हैं, लेकिन यह उनका स्वभाव है, न कि कोई अपराध।

सोचने वाली बात यह है कि यदि हम इन जीवों को पूरी तरह भगा दें तो वे अपना भोजन कहाँ से पाएँगे? यह धरती केवल मनुष्य की नहीं है, बल्कि करोड़ों प्रजातियों का साझा घर है। जिस प्रकार मनुष्य जंगलों पर अपना हक जताता है, उसी प्रकार बंदरों, सूअरों और अन्य जीवों का भी उस पर समान अधिकार है।

आज स्थिति यह है कि मनुष्य ने अपनी जरूरत और कमाई के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई शुरू कर दी है। नतीजा यह हुआ कि जानवरों के प्राकृतिक घर और भोजन के स्रोत समाप्त होते जा रहे हैं। यही कारण है कि वे शहरों और गाँवों की ओर रुख कर रहे हैं और खेतों-बागों को नुकसान पहुँचाते हैं। यह नुकसान वास्तव में हमारी ही बनाई हुई समस्या है।

सच तो यह है कि जंगलों की कटाई न केवल जानवरों को उजाड़ रही है बल्कि कई दुर्लभ वनस्पतियों और प्रजातियों को भी विलुप्त कर चुकी है। धीरे-धीरे मनुष्य भी इस बड़े प्राकृतिक संसाधन से दूर होता जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि हम जंगलों और वहाँ रहने वाले जीवों को उनका हिस्सा लौटाएँ। हमें यह स्वीकार करना होगा कि प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए कुछ नुकसान उठाना मनुष्य का कर्तव्य है।


जंगल और जानवर : बहस का मुद्दा

पक्ष में तर्क (मनुष्य की चिंता):

  • बंदर और सूअर खेत-बाग़ों को नुकसान पहुँचाते हैं।
  • किसान अपनी मेहनत और लागत से फल–फसल उगाते हैं, जिन्हें जंगली जानवर बर्बाद कर देते हैं।
  • ऐसे में मनुष्य को अपनी रोज़ी-रोटी बचाने का अधिकार है।

विपक्ष में तर्क (जानवरों का पक्ष):

  • जंगल उनके असली घर हैं, परंतु जंगल कट रहे हैं।
  • भोजन और आवास छिन जाने पर वे मजबूरी में गाँव-शहर आते हैं।
  • धरती पर केवल मनुष्य का नहीं, सभी प्रजातियों का समान अधिकार है।

मध्य सवाल:
क्या मनुष्य अपनी सुविधा के लिए प्रकृति को नष्ट कर सकता है?
क्या कुछ नुकसान सह लेना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं, ताकि पारिस्थितिकी संतुलन बचा रहे?

निष्कर्ष:
मनुष्य और जानवर दोनों का अस्तित्व जंगल से जुड़ा है। यदि जंगल और जैव–विविधता सुरक्षित नहीं रहेगी तो अंततः सभ्यता भी संकट में पड़ जाएगी। समाधान यही है कि विकास और संरक्षण में संतुलन बनाया जाए। 

**अजामिल



चिया की साइकिल





शुभ प्राप्ति : चिया की साइकिल

बच्चों के साहित्य को लेकर विश्व के बड़े लेखक हमेशा गंभीर रहे हैं और इसे भविष्य-निर्माण की ज़िम्मेदारी माना है। दुर्भाग्यवश हमारे देश में इसे अक्सर दोयम दर्जे का काम समझा गया। हकीकत यह है कि बाल साहित्य लेखन आसान नहीं, बल्कि बच्चे-सा मन और समृद्ध भाषा इसकी शर्त है।

इसी धारा में सुप्रसिद्ध गीतकार यश मालवीय का नया कविता-संग्रह चिया की साइकिल प्रकाशित हुआ है। यह संग्रह बच्चों की मासूम दुनिया, उनके खेल, उनके सपनों और तोतली ज़ुबान को बड़ी खूबसूरती से कविता में पिरोता है। 3 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए यह संग्रह अत्यंत उपयोगी है, क्योंकि इसमें न केवल सहज-सरल भाषा है बल्कि रोचक कहानियों जैसी कविताएँ हैं जिन्हें बच्चे आसानी से याद कर सकें।

यश मालवीय को बच्चों के लिए लिखने की प्रेरणा उनके पिता उमाकांत मालवीय से मिली, जो मानते थे कि बाल साहित्य से बच्चों को संस्कार और भाषा की गहराई दोनों मिलते हैं। इस संग्रह की कविताएँ न सिर्फ मनोरंजन करती हैं, बल्कि बच्चों को संवाद की नई भाषा और मुहावरे भी सिखाती हैं।

चिया की साइकिल का विमोचन देश के कई शहरों में साहित्यकारों द्वारा हुआ और इसे बच्चों को समर्पित किया गया। विशेष बात यह भी है कि इस पुस्तक के आवरण और सभी चित्र अचिन्त्य मालवीय ने बनाए हैं, जिसने इसे यादगार और उपहार योग्य बना दिया है।

निस्संदेह, यह संग्रह बाल साहित्य में एक उल्लेखनीय उदाहरण है और उन लेखकों के लिए प्रेरणा है जो बच्चों के लिए लिखने को आसान समझते हैं। दरअसल, यह काम बड़ों के लिए लिखने से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है।

– अजामिल





शिक्षा की दुकानें बंद हों

आज का मुद्दा
शिक्षा की दुकाने बंद हो...
**अजामिल

..शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना नहीं, बल्कि बच्चों का सर्वांगीण विकास है। परंतु वर्तमान में अधिकतर निजी स्कूल व्यापार का रूप ले चुके हैं, जहां शिक्षा की गुणवत्ता से अधिक फीस और प्रचार पर ध्यान दिया जाता है। इन स्कूलों का संचालन अक्सर ऐसे लोगों के हाथ में है, जिन्हें न तो बाल मनोविज्ञान की समझ है, न ही शिक्षण का अनुभव।
एक बार एक शिक्षक ने कक्षा में सभी बच्चों को एक ही प्रश्न दिया: "पेड़ पर चढ़ो।" लेकिन परीक्षा में एक मछली, एक हाथी और एक बंदर भी शामिल थे। यह उदाहरण दर्शाता है कि सबको एक ही पैमाने से मापना न्यायसंगत नहीं है। हर बच्चे की क्षमता और रुचि अलग होती है; शिक्षा व्यवस्था को इसे समझकर व्यक्तिगत विकास की ओर अग्रसर होना चाहिए।
आज समय है कि हम स्कूलों की व्यवस्था और अभिभावकों की भूमिका दोनों पर पुनर्विचार करें। जब तक दोनों पक्ष मिलकर बच्चों की वास्तविक आवश्यकताओं को नहीं समझेंगे, तब तक शिक्षा केवल एक औपचारिक व्यवस्था बनी रहेगी।

साथ ही, यह भी आवश्यक है कि शिक्षक प्रशिक्षण को गंभीरता से लिया जाए। योग्य, संवेदनशील और प्रेरणादायक शिक्षक ही एक बच्चे की आंतरिक संभावनाओं को पहचान सकते हैं। तकनीक और संसाधन तभी कारगर सिद्ध होते हैं जब उनका प्रयोग समझदारी और संवेदनशीलता के साथ किया जाए।
अभिभावकों को भी केवल अंक और रिपोर्ट कार्ड से आगे सोचने की ज़रूरत है। उन्हें अपने बच्चों से संवाद स्थापित करना होगा, उनकी रुचियों को समझना होगा और उन पर विश्वास करना होगा। शिक्षा का सच्चा अर्थ तभी सिद्ध होगा जब स्कूल और घर एक साथ मिलकर बच्चे को एक स्वतंत्र, सृजनात्मक और नैतिक नागरिक बनाने की दिशा में कार्य करेंगे।
** अजामिल

भारत में शिक्षा की दशा दिशा



भारत में बच्चों की शिक्षा की दशा दिशा:
कौन जिम्मेदार – स्कूल की व्यवस्था या अभिभावक?

लेखक: अजामिल

भारत में बच्चों की शिक्षा केवल औपचारिकता बनकर रह गई है। आज भी अधिकतर स्कूल बच्चों को केवल एक संख्या के रूप में देखते हैं, न कि एक व्यक्ति के रूप में। बिना ठोस योजना और दृष्टिकोण के बच्चों को एक जैसी शिक्षा दी जा रही है। अभिभावक भी बच्चों को स्कूल भेजकर मान लेते हैं कि उनका दायित्व पूरा हो गया, जबकि शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है जिसमें घर और स्कूल दोनों की बराबर भूमिका होती है।

शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना नहीं, बल्कि बच्चों का सर्वांगीण विकास है। परंतु वर्तमान में अधिकतर निजी स्कूल व्यापार का रूप ले चुके हैं, जहां शिक्षा की गुणवत्ता से अधिक फीस और प्रचार पर ध्यान दिया जाता है। इन स्कूलों का संचालन अक्सर ऐसे लोगों के हाथ में है, जिन्हें न तो बाल मनोविज्ञान की समझ है, न ही शिक्षण का अनुभव।

प्रेरक उदाहरण:
एक बार एक शिक्षक ने कक्षा में सभी बच्चों को एक ही प्रश्न दिया: "पेड़ पर चढ़ो।" लेकिन परीक्षा में एक मछली, एक हाथी और एक बंदर भी शामिल थे। यह उदाहरण दर्शाता है कि सबको एक ही पैमाने से मापना न्यायसंगत नहीं है। हर बच्चे की क्षमता और रुचि अलग होती है; शिक्षा व्यवस्था को इसे समझकर व्यक्तिगत विकास की ओर अग्रसर होना चाहिए।

आज समय है कि हम स्कूलों की व्यवस्था और अभिभावकों की भूमिका दोनों पर पुनर्विचार करें। जब तक दोनों पक्ष मिलकर बच्चों की वास्तविक आवश्यकताओं को नहीं समझेंगे, तब तक शिक्षा केवल एक औपचारिक व्यवस्था बनी रहेगी।