भारत में बच्चों की शिक्षा की दशा दिशा:
कौन जिम्मेदार – स्कूल की व्यवस्था या अभिभावक?
लेखक: अजामिल
भारत में बच्चों की शिक्षा केवल औपचारिकता बनकर रह गई है। आज भी अधिकतर स्कूल बच्चों को केवल एक संख्या के रूप में देखते हैं, न कि एक व्यक्ति के रूप में। बिना ठोस योजना और दृष्टिकोण के बच्चों को एक जैसी शिक्षा दी जा रही है। अभिभावक भी बच्चों को स्कूल भेजकर मान लेते हैं कि उनका दायित्व पूरा हो गया, जबकि शिक्षा एक सतत प्रक्रिया है जिसमें घर और स्कूल दोनों की बराबर भूमिका होती है।
शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना नहीं, बल्कि बच्चों का सर्वांगीण विकास है। परंतु वर्तमान में अधिकतर निजी स्कूल व्यापार का रूप ले चुके हैं, जहां शिक्षा की गुणवत्ता से अधिक फीस और प्रचार पर ध्यान दिया जाता है। इन स्कूलों का संचालन अक्सर ऐसे लोगों के हाथ में है, जिन्हें न तो बाल मनोविज्ञान की समझ है, न ही शिक्षण का अनुभव।
प्रेरक उदाहरण:
एक बार एक शिक्षक ने कक्षा में सभी बच्चों को एक ही प्रश्न दिया: "पेड़ पर चढ़ो।" लेकिन परीक्षा में एक मछली, एक हाथी और एक बंदर भी शामिल थे। यह उदाहरण दर्शाता है कि सबको एक ही पैमाने से मापना न्यायसंगत नहीं है। हर बच्चे की क्षमता और रुचि अलग होती है; शिक्षा व्यवस्था को इसे समझकर व्यक्तिगत विकास की ओर अग्रसर होना चाहिए।
आज समय है कि हम स्कूलों की व्यवस्था और अभिभावकों की भूमिका दोनों पर पुनर्विचार करें। जब तक दोनों पक्ष मिलकर बच्चों की वास्तविक आवश्यकताओं को नहीं समझेंगे, तब तक शिक्षा केवल एक औपचारिक व्यवस्था बनी रहेगी।
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