शनिवार, 16 सितंबर 2017

सेमिनार भारतीय सिनेमा का क्रमागत विकास

**व्यंजना का राष्ट्रीय सेमिनार

** सिनेमा उत्सव

भारतीय सिनेमा का क्रमागत विकास- एक परिचर्चा

भारतीय सिनेमा के क्रमागत विकास यात्रा के 105 गौरवशाली वर्ष बीत चुके हैं और आज हम दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देशों में तीसरे स्थान पर हैं । हम ओसतन 6 फ़िल्में रोज बनाते है । इनमें  व्यवसायिक और कला फिल्में  दोनों शामिल हैं ।  भारतीय फिल्मों के क्रमागत विकास के पूरे परिदृश्य को देखने और उस पर एक समीक्षात्मक दृष्टि डालने के उद्देश्य से इलाहाबाद की जानी-मानी सांस्कृतिक संस्था व्यंजना ने मेहता प्रेक्षागृह मेंं भारतीय सिनेमा का क्रमागत विकास विषय पर एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया । चार सत्रो में विभाजित इस  आयोजन में  फिल्म विषय से जुड़े  अनेक  विशेषज्ञों ने  शिरकत की  । इस आयोजन को वरिष्ठ फिल्म समीक्षक प्रहलाद अग्रवाल फिल्म निर्देशक गौतम चटर्जी फिल्म समीक्षक आनंदवर्धन शुक्ल फिल्म समीक्षक मनमोहन चड्ढा फिल्म समीक्षक प्रोफेसर अनिल चौधरी फिल्म समीक्षक सुनील मिश्रा फिल्म समीक्षक प्रोफेसर महेश चंद्र चट्टोपाध्याय आदि विशेषज्ञों ने संबोधित किया । भारतीय  फिल्मों के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते हुए लगभग सभी फिल्म विशेषज्ञो ने यह स्वीकार किया क़ि इतनी लंबी यात्रा तय करने के बाद भी भारतीय सिनेमा का बड़ा प्रतिशत अपनी सामाजिक भूमिका को लेकर मनोरंजन के आस-पास ही टिका हुआ हैं।  खास तौर पर हिंदी सिनेमा दर्शकों का बड़ा वर्ग इस माध्यम को टाइमपास माध्यम मानकर चलता है जबकि सिनेमा विभिन्न स्तरों पर आवाम की सभी गतिविधियों को प्रभावित कर रहा है । सिनेमा आज जिंदगी में एक निर्णायक भूमिका में है । किसी वक्त में भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी फिल्में जरूर बनाई गई जो कमोबेश जिंदगी की सच्चाइयों को सामने लाती थी । फिर सिनेमा अपनी व्यवसायिकता और बाजार के दबाव में व्यापार की शर्तों पर बनाया जाने लगा । आज सिनेमा पूरी तरह से व्यापार बन चुका है और इससे जुड़े कलाकारों टेक्नीशियन और लेखको कीं फितरत भी सिनेमा को व्यापार की नजर से देख रही है । करोड़ों का व्यापार सिनेमा का उद्देश्य हो गया है  ।

सार्थक कलात्मक समानांतर सिनेमा के लिए गुंजाइश बहुत कम हो गई है । फिल्म विशेषज्ञो ने इस मौके पर फिल्म इंडस्ट्री को  यादगार फिल्मों के जरिए  योगदान देने वाले  नए पुराने फिल्मकारों को  याद किया और उन फिल्मों की भी चर्चा की जो भारतीय फिल्मों के क्रमागत विकास में टर्निंग पॉइंट कही जाती है । इस अवसर पर फिल्म कला के विशेषज्ञ गौतम चटर्जी ने कहा कि भारतीय फिल्मों के दर्शक आज  भी फिल्म देखने की कला से अनिभिज्ञ  हैं । फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें इस कला को सिखाने की कभी कोशिश नहीं की । समीक्षा का स्तर भी इतना अच्छा नहीं रहा कि वह दर्शकों को फिल्म देखने के लिए प्रेरित कर  पाती । प्रथम पंक्ति के जानकारी से लैस फिल्म समीक्षक फिल्म इंडस्ट्री के पास आज भी नहीं है । उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री देशी-विदेशी सफल फिल्मकारों का आजतक अनुकरण और अनुसरण ही करती आ रही है जिसकी वजह से दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने के बावजूद हमारी फिल्मों की कोई ऐसी पहचान नहीं है जिसे हम भारतीय फिल्मों की पहचान बता सकें । इस मौके पर अधिकतर वक्ताओं ने फिल्म  इनसाइक्लोपीडिया मेंं दी गई भारतीय फिल्मों की उपलब्ध जानकारी ही विस्तार से परोसी जो बेशक रोचक थी परंतु इस जानकारी में मौलिक सोच का अभाव था । यह भी कहा गया क़ि भारतीय फिल्म निर्माता फिल्म समीक्षाओं की फिक्र नहीं करता और वह अपना समीक्षक अपने दर्शक को मानता है । वह समीक्षा पढ़कर फिल्म देखने भी नहीं जाता । फिल्म उसके लिए बैठकर मूंगफली खाने जैसा ही टाइमपास है । बावजूद इसके दो राय नहीं क़ि मौजूदा हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में बहुत अच्छी फिल्में बनाई जा रही हैं और बेहद सशक्त फिल्म निर्देशक पूरी दमदारी से अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप फिल्म बनाने के प्रयास में लगे हुए हैं । इस अवसर पर दादा साहब फाल्के के अविस्मरणीय योगदान को याद किया गया और उनके संघर्षों को भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की बुनियाद बताया गया । दादा साहब फाल्के की श्रीमती जी को याद करते हुए मृदुला कुुशालकर ने कहा कि उनका भी योगदान दादा साहब फाल्के के योगदान से किसी स्थर पर कम नहीं था । ब्लैक एंड वाइट फिल्मों की प्रोसेसिंग वही किया करती थी ।

यह कार्यक्रम एक शानदार मौका था जिसमें फिल्म इंडस्ट्री के तमाम नामचीन लोग मौजूद रहे  । व्यंजना इलाहाबाद की उन संस्थाओं में एक है जो सिनेमा सहित तमाम कलाओ पर  वर्षभर  कार्यक्रमों का  आयोजन करती है और विभिन्न कलाओं के साधकों को मंच प्रदान करती है । इस आयोजन का संचालन वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी राजेश मिश्र और वरिष्ठ पत्रकार धनंजय चोपड़ा ने किया।   कार्यक्रम की ओवरऑल कंट्रोलर आशा अस्थाना और वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी मधु शुक्ला रही । यह एक ऐसा आयोजन था जो बहुत दिनों तक लोगों की स्मृति में रहेगा।

**चित्र व रिपोर्ट - अजामिल

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